
पंचानन सिंह बगहा पश्चिमी चंपारण।
हनुमान जी द्वारा अष्टसिद्धियों का प्रयोग —
(१) *अणिमा*- अणिमा सिद्धि का प्रयोग करके इतने अणु हो रहे हैं हनुमान जी- *सिंधु तीर एक भूधर सुंदर। कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर ।।* (५/०/५)। उछलकर कूद पड़े उसपर। *बार बार रघुबीर सँभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी ।।* (५/०/६)। इतने हल्के-अणु।
(२) *गरिमा*- और गरिमा अर्थात् गुरु- *जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता। चलेउ सो गा पाताल तुरंता ।।* (५/०/७)। जिस पर्वत पर हनुमान जी चरण देकर चढ़े वह पाताल में चला गया, इतना गुरु! हनुमान जी के भारीपन को पर्वत नहीं सह सका।
(३) *लघिमा*- फिर लघिमा *जिमि अमोघ रघुपति कर बाना। एही भाँति चलेउ हनुमाना ।।* (मानस ५/०/८)। जिस प्रकार रामजी का बाण सर्र से चलता है उसी प्रकार हनुमान जी चले, किसी ने रोका नहीं। मैनाक ने रोका पर हनुमान जीने नहीं स्वीकारा– *राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम* (५/१)।
(४) *महिमा*- सुरसा ने हनुमान जी को खाने का प्रस्ताव किया। यहाँ महिमा का प्रयोग हनुमान जी करते हैं- उसने एक योजन का मुँह बनाया तो हनुमान जी दो योजन के हो गये, उसने सोलह योजन का मुँह बनाया तो हनुमान जी बत्तीस योजन के हो गये। फिर लघिमा – उसने सौ योजन का मुँह बनाया तो हनुमान जी बहुत छोटा-सा रूप बनाकर *बदन पइठि पुनि बाहेर आवा। मागा बिदा ताहि सिरु नावा ।।* (५/१/६-१)- अणिमा का प्रयोग कर दिया।
(५) *प्राप्ति*- अब आगे बढ़े। सिंहिका को मारकर आ रहे हैं। लंकिनी का दमन किया और विभीषण से सत्संग किया। इसके पश्चात् सीताजी की प्राप्ति कर ली– *देखि मनहि महुॅं कीन्ह प्रनामा। बैठेहिं बीति गई निसि जामा।* (५/७/७)। यह है प्राप्ति।
(६) *प्राकाम्य* – सीताजी को सन्देह है कि यह छोटा-सा वानर कैसे रावण की सेना का वध कर सकेगा। तब हनुमान जी ने प्राकाम्य सिद्धि का प्रयोग किया और विशाल बन गये- *कनक भूधराकार सरीरा। समर भयंकर अतिबल बीरा।।* (५/१५/८)। यह हनुमान जी की छठवीं सिद्धि प्राकाम्य है। इससे राक्षसों का वध किया।
(७) *ईशित्व*- अशोक वाटिका को विध्वंस कर अब हनुमान जी सातवीं सिद्धि ईशित्व का प्रयोग कर रहे हैं। सबको दण्ड दे रहे हैं। राक्षसों को मारा। लंका जला डाली। ईशित्व का प्रयोग किया।
(८) *वशित्व*- लंका के रत्नों पर हनुमान जी का मन नहीं गया यही उनका वशित्व है। सभी रत्नों को जलाकर खाक कर डाला पर एक भी अपने लिए नहीं रखा। सब कुछ जलाकर खाक कर दिया।
आठों सिद्धियों का प्रयोग कर दिया। सीताजी से चूड़ामणि लेकर रामजी के पास आये। रामजी ने प्रशंसा की, हृदय से लगाया और पूछा— *केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका।* (मानस ५/३२/५)। तब भी अभिमान नहीं आया, यह उनका *वशित्व* है। उन्होंने कहा-
*नाघि सिंधु हाटकपुर जारा। निसिचर गन बधि बिपिन उजारा॥*
*सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछू मोरि प्रभुताई॥*
(५/३२/८-९)