स्वयं आते हैं भगवान-पं०भरत उपाध्याय

पंचानन सिंह बगहा पश्चिमी चंपारण।

बगहा/मधुबनी 01नवंबर।जहाँ भक्तोंकी चर्चा होती है, वहाँ भगवान् स्वयं पधारते हैं। नाभाजी महाराजने ‘भक्तमाल’ की रचना की। उसके ऊपर प्रियादासजी महाराजने कवितामें टीका की। ये स्वयं ठाकुरजीका सिंहासन लगाकर, उन्हें कथा सुनाते थे। उनकी कथामें अनेक धनिक लोग भी आते थे। धनिकोंके आनेसे खतरा होता है। कुछ चोरोंने देखा कि यहाँ इतने धनी आदमी आते हैं, हम भी चलें । और कुछ नहीं मिला तो चोरोंने ठाकुरजीकी प्रतिमा चोरी कर ली । प्रियादासजी महाराजने कहा—‘हमारे मुख्य श्रोता चले गये, अब कथा किसे सुनावें ? कथा बन्द।

ठाकुरजी चले गये। अब भोग किसे लगावें ? भोजन बनाना बन्द ! भूखे रहे। कथा भी बन्द रही। उधर चोरों में बड़ी खलबली मची। वे वापस लाकर ठाकुरजीको दे देते हैं । जब ठाकुरजी आ गये तो स्नान किया, ठाकुरजीको स्नान, श्रृंगार कराया। रसोई बनायी, भोग लगाया । उसके बाद कथा चली। जब कथा चली तो प्रसंग कहाँतक चला— ऐसा किसीको याद नहीं रहा, तब ठाकुरजी स्वयं बोल पड़े कि अमुक प्रसंगतक कथा हुई थी । इस प्रकार स्वयं श्रीभगवान भक्तोंकी कथा ध्यानपूर्वक सुनते हैं।

सूर्योदय होता है तो अन्धकार दूर हो जाता है, पर वह बाहरी अन्धकार होता है; किन्तु जब सत्संगरूपी सूर्य उदय होता है तो उससे भीतर (अंतःकरण) में रहनेवाला अँधेरा दूर हो जाता है । पाप दूर हो जाते हैं । शंकाएँ दूर हो जाती हैं ।

अन्तकरणमें रहनेवाली तरह-तरहकी उलझनें सुलझ जाती हैं—

राम माया सतगुरु दया, साधु संग जब होय ।

तब प्राणी जाने कछु, रह्यो विषय रस भोय ॥

भगवान् और सन्तोंकी जब पूर्ण कृपा होती है तब सत्संगति मिलती है—

संत बिसुद्ध मिलहिं परि तेहि । चितवहिं राम कृपा करि जेहि ॥ (मानस, सुन्दर.७/४)

विभीषणने हनुमानजीसे कहा—

अब मोही भा भरोस हनुमंता । बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता ॥

‘हे हनुमानजी ! अब मुझे पक्का भरोसा हो गया कि भगवान् जरुर मिलेंगे । आप मिल गये, इससे मालूम होता है कि श्रीभगवान् ने मुझपर विशेष कृपा की है । भगवान् ने मनुष्य-शरीर दिया, यह कृपा की, उसके बाद सत्संग दिया —यह विशेष कृपा है । ऐसी कृपाका लाभ हमें तो लेना ही चाहिये । दूसरोंको भी जो लेना चाहें तो देना चाहिये—

भरा सत्संग का दरिया, नहा लो जिसका जी चाहे ।

हजारो रतन बेकीमत, भरे आला से आला हैं ॥

लगाकर ज्ञान का गोता, निकालो जिसका जी चाहे ।

सत्संगरूपी दरियामें बहुत बढ़िया-बढ़िया रत्न हैं । इसमें ज्ञानकी डुबकी जितनी लगायेंगे, उतनी ही विलक्षण बातें मिलेंगी । सुननेसे तो मिलती ही हैं, सुनानेसे भी मिलती हैं । सुनानेमें भी ऐसी-ऐसी विलक्षण बातें पैदा होती हैं कि बड़ा भारी लाभ होता है । ऐसी कई बातें हमें- सुननेवालोंकी कृपासे मिलती हैं ।

संत समागम हरि कथा तुलसी दुर्लभ दोय ।

सूत दारा अरु लक्ष्मी पापी के भी होय ॥

भगवान् की कथा और सत्संग—ये दो दुर्लभ वस्तुएँ हैं । पुत्र- और धन तो पापी मनुष्यके भी प्रारब्धानुसार होते ही हैं । रावणका भी बहुत बड़ा राज्य था,यह कोई बड़ी बात नहीं । बड़ी बात तो यह है कि भगवान् का चिन्तन हो, स्मरण हो, चर्चा हो तथा भगवान् की तरफ लग जायँ । सन्तोंने भी माँगा है—

राम जी साधु संगत मोही दीजिये ।वांरो संगत दो राम जी पलभर भूल न होय ॥

‘महाराज ! सत्संगति दीजिये, जिससे आपको क्षणभर भी नहीं भूलूँ ।’

सज्जनो ! सत्संगसे जो लाभ होता है, वह साधनसे नहीं होता । साधन करके जो परमात्मतत्वको प्राप्त करना है, वह कमाकर धनी होनेके सामान है । किन्तु सत्संग सुनना तो गोदमें जाना सामान है । गोद चले जानेसे कमाया हुआ धन स्वतः मिल जाता है । सन्तोंने कितने वर्ष लगाये होंगे ? कितना साधन किया होगा ? कितनोंका संग किया होगा ? उस सबका सार आपको एक घण्टेमें मिल जाता है ।

इससे मुफ्तमें कल्याण होता है,। कहा गया है —

जलचर थलचर नभचर नाना । जे जड़ चेतन जीव जहाना ॥

मति कीरति गति भूति भलाई । जब जेहि जतन जहाँ जेहि पाई ॥

सो जनाब सतसंग प्रभाऊ । लोकहुँ वेद न आन उपाऊ ॥ (मानस,बाल। ३/४—६)

और—

संत समागम करिये भाई,लोह पलट कंचन हो जाई।

नानाविध वनराय कहीजे,भिन्न-भिन्न सब नाम धराई।

नौका रूप जानि सत्संगहि, या में सब मिल बैठो आई।

और उपाय नहीं तिरने का, सुन्दर काढिहि राम दुहाई।

*हरे राम*

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