बिना मांगे मिला हुआ ‘अमृत’ तथा मांगी हुई भिक्षा ‘मृत’ है -पं-भरत उपाध्याय

 

पंचानन सिंह बगहा पश्चिमी चंपारण।

बगहा।ब्राह्मणों का धर्म क्या है ?एवं आपातकाल कलयुग में क्या ब्राह्मण जीविकोपार्जन हेतु किसी की भी आजीविका का वरण कर सकता है ?

ब्राह्मणके लिये शिल और उञ्छवृत्ति सबसे श्रेष्ठ है। ऐसा ब्राह्मण ऋषिके तुल्य है। जब किसान अनाज काटकर खलिहानसे उसे घरपर ले आता है, उसके बाद उस खेतमें वर्षासे स्वाभाविक ही जो भी धान्य

आदि उत्पन्न होता है,उसे लेकर जीवन-निर्वाह करना अथवा खेत या खलिहानमें गिरे हुए धान्य आदिके दानोंको बीनकर उनसे निर्वाह करना ‘शिल’ वृत्ति है एवं नगरमें अनाज आदिके क्रय-विक्रयके समय जो अनाजके दाने नीचे भूमिपर गिरे रहते हैं,उनको बीनकर उनसे निर्वाह करना ‘उञ्छ’ वृत्ति है; इसे ‘कपोतवृत्ति’ भी कहते हैं। इन दोनों शिल और उञ्छको ‘ऋत’ कहा गया है।

इसके सिवा ब्राह्मणके लिये जीविकाकी साधारण वृत्ति इस प्रकार बतलायी गयी है-

अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा।

दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्॥

(मनु० १।८८)

‘पढ़ना-पढ़ाना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना और दान लेना-ये छः कर्म ब्राह्मणके लिये रचे गये हैं।’

इनमें यज्ञ करना, दान देना और विद्या पढ़ना-

ये तीन तो धर्म-पालनके लिये हैं और यज्ञ कराना, दान लेना और विद्या पढ़ाना-ये तीन आजीविकाके लिये।

उपर्युक्त छहों कर्मोका निष्कामभावसे पालन करनेपर ब्राह्मणका कल्याण हो जाता है। इनमें जो दानवृत्ति है, वह बिना माँगे अपने-आप यदि दान प्राप्त हो जाय तो ‘अमृत’ के समान है और दान माँगकर उससे निर्वाह करना ‘मृत’ है, अतः निन्दनीय है।

मनु जी ने कहा है-

यदि ब्राह्मणका ब्राह्मणके कर्मोसे निर्वाह न हो तो आपत्तिकालमें ब्राह्मण क्षत्रिय अथवा वैश्यकी वृत्तिसे अपना निर्वाह कर सकता है। श्रीमनुजीने कहा है

अजीवंस्तु यथोक्तेन ब्राह्मणः स्वेन कर्मणा।

जीवेत् क्षत्रियधर्मेण स ह्यस्य प्रत्यनन्तरः॥

उभाभ्यामप्यजीवंस्तु कथं स्यादिति चेद् भवेत्।

कृषिगोरक्षमास्थाय जीवेद् वैश्यस्य जीविकाम्॥

(मनु० १०। ८१-८२)

‘यदि ब्राह्मण अपनी जीविकासे जीवन-निर्वाह करनेमें असमर्थ हो तो क्षत्रियकी वृत्तिसे जीविका करे; क्योंकि यह उसके निकटका वर्ण है एवं यदिब्राह्मणवृत्ति और क्षत्रियवृत्ति-दोनोंसे भी ब्राह्मणको – जीविका चलानेमें कठिनता हो तो वह खेती, गोरक्षा, वाणिज्य आदि वैश्यकी जीविकासे निर्वाह करे।’

किंतु ब्राह्मणको शूद्रकी वृत्तिका अवलम्बन

आपत्तिकालमें भी नहीं करना चाहिये। श्रीमनुजीने ब्राह्मणके लिये ऋत आदिकी व्याख्या करते हुए कहा है-

ऋतामृताभ्यां जीवेत्तु मृतेन प्रमृतेन वा।

सत्यानृताभ्यामपि वा न श्ववृत्त्या कदाचन॥

ऋतमुञ्छशिलं ज्ञेयममृतं स्यादयाचितम्।

मृतं तु याचितं भैक्षं प्रमृतं कर्षणं स्मृतम्॥

सत्यानृतं तु वाणिज्यं तेन चैवापि जीव्यते।

सेवा श्ववृत्तिराख्याता तस्मात्तां परिवर्जयेत्॥

मनु० ४।४-६)

ब्राह्मण ऋत, अमृत, मृत, प्रमृत या सत्यानृतसे अपना जीवन बिताये, परंतु श्ववृत्ति अर्थात् सेवावृत्ति न करे। उञ्छ और शिलको ‘ऋत’ जानना चाहिये। बिना माँगे मिला हुआ ‘अमृत’ है। माँगी हुई भिक्षा ‘मृत’ कहलाती है तथा खेतीको ‘प्रमृत’ कहते हैं।

वाणिज्यको ‘सत्यानृत’ कहते हैं, उससे भी जीविका चलायी जा सकती है; किंतु सेवाको श्ववृत्ति कहा गया है, इसलिये उसका त्याग कर देना चाहिये।’

श्रीमनुजीने कहा है

षषणां तु कर्मणामस्य त्रीणि कर्माणि जीविका। याजनाध्यापने चैव विशुद्धाच्च प्रतिग्रहः॥ (मनु १०। ७६)

‘षट् कर्मों में पढ़ाना, यज्ञ कराना और विशुद्ध द्विजातियोंसे दान ग्रहण करना-ये तीनों ब्राह्मणकी जीविकाके कर्म है।

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